सुनो वादी, यूँ ज़िक्र ऐसा सा है तेरा⠀
कि ब्यान करने में मुझे ग़ुरूर हो⠀
क्यूँकि तुम मेरा नूर हो⠀
छू कर आया हूँ जिसे⠀
तुम वो हूर हो,⠀
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शाम ढलते तेरा इश्क़ चढ़े और⠀
सुबहा सराबोर हो,⠀
तुम ऐसा सरूर हो,⠀
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तेरे नक़्शे क़दम पे चलते⠀
हुए पता चला,⠀
बड़े इत्मिनान से तराशा इस वादी को,⠀
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कहीं धूप छींट की ⠀
कहीं बर्फ़ भरपूर हो⠀
इन सबमें तुम मगरूर हो,⠀
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फ़िर भी मुझे गुमान है⠀
कि तुमने मुझे चुना है⠀
बस इसी से सपने का ⠀
धागा बुना है,⠀
दर दर घुमूँ मैं ओढ़े इसे⠀
क्यूँकि इसे तुमने दिया है!!
